दुःख का कारण और सुख की प्राप्ति
अपने जीवन के दुःखों से मुक्त होकर सुख प्राप्ति की कामना किसमे नही है। प्रत्येक व्यक्ति सम्पूर्णता से जीना चाहता है। परन्तु यह होता नही है। सुख पूर्वक जीने के लिए धीरज से काम लें और अन्दर झाँकने की चेष्टा के द्वारा ज्ञात करने की कोशिश करें कि कौन दुखी है। इसके लिए आपको यह जानना आवश्यक है कि आप कौन हैं। आपका स्वरूप क्या है? स्मरण रखें कि स्वरूप विस्मृत व्यक्ति वासनाओं का दास हो जाता है। स्वरूप स्मृति से ही सुख का द्वार खुलता है और दुखों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
स्वरूप स्मृति प्राप्ति के लिए निम्नलिखित का ध्यान से अध्ययन कीजिएः
स्वरूप विस्मृति से वासना में लिप्तता
और शरीर बनता दुःख-रूपी रोगों का क्रीडास्थल।
रोग मुक्ति के लिए उपचार आवश्यक
और उपचार के लिए वैद्य आवश्यक
वैद्य से ही दैहिक, दैविक एवम् भौतिक दुःखों से मुक्ति
वैद्य खोजिए और कीजिए उपचार।
अन्वेषित किया तो आवश्यक पाया तत्व-ज्ञान।
तत्व-ज्ञान से ही वासना का क्षय, परमात्मा का यथार्थ ज्ञान और मनोनाश
और फिर मिलती समस्त रोगों से मुक्ति।
( वासनाक्षयविज्ञानमनोनाशा महामते । समकालं चिराभ्यस्ता भवन्ति फलदा मुने ।। ( योगवाशिष्टठ उप. 92।17))
तत्व-ज्ञान का साधन क्या है, इसको कैसे प्राप्त करें?
अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करते हुए
सत्पुरुषों के साथ रहो अरु शास्त्र-चिन्तन में निमग्न रहो
स्वरुप ज्ञान हो जायगा और भव-बन्धन हट जायगा।
( ज्ञात्वा देवं सर्वपाशाहानिः । (श्वेता. 1 । 11))
( तरंग में तरंग-बुद्धि करने से वह तरंग- भाव में प्रतीत होती है और तरंग में जल-बुद्धि करने से उसमें सामान्य जल-बुद्धि होती है, ऐसा पुरुष जल और तरंग के भेद से विमुक्त निर्विकल्प कहा जाता है। वैसे ही मन की मन-भावना करने से वह मन-रूप में परिणत हो कर संसार के निर्माण और दुःख का कारण होता है, पर मन की ब्रह्म-भावना करने पर वह सर्वत्र ब्रह्म-दर्शन की क्षमता प्रदान करता है और ऐसा व्यक्ति निर्विकल्प हो जाता है।)
स्वरूप ज्ञान के लिए जरूरी दृश्य प्रपंच का अन्त
द्रृश्य प्रपंच की समाप्ति पर हो चित्तवृत्ति निरोध।
चित्तवृत्ति हटावे योग स्थिति के अवरोध।
योग स्थित व्यक्ति को सबमें सम-चैतन्य सम-भावना
जिससे हो ब्रह्म और जीव भेद की अवसानना ।
( घटाकाश तथा महाकाश की एकता हो जाती है)
साधक को हो भगवद्दर्शन
अरु भजने लगे निर्वाण-षटकम्ः
ओं मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राण नेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्द रूपः शिवोSहं शिवोSहं ।। 1 ।।
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुर्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहं ।।2।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहं ।।3।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहं ।।4।।
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहं ।।5।।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुंत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणम् ।
न वासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहं ।।6।।
Monday, September 14, 2009
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